Ghazals of Ghulam Murtaza Rahi

Ghazals of Ghulam Murtaza Rahi
नामग़ुलाम मुर्तज़ा राही
अंग्रेज़ी नामGhulam Murtaza Rahi
जन्म की तारीख1937

वही साहिल वही मंजधार मुझ को

उबल पड़ा यक-ब-यक समुंदर तो मैं ने देखा

ठहर ठहर के मिरा इंतिज़ार करता चल

ताबीरों से बंद क़बा-ए-ख़्वाब खुले

शक्ल सहरा की हमेशा जानी-पहचानी रहे

रखता नहीं है दश्त सरोकार आब से

राह से मुझ को हटा कर ले गया

क़दमों से मेरे गर्द-ए-सफ़र कौन ले गया

पेड़ अगर ऊँचा मिलता है

पस्त-ओ-बुलंद में जो तुझे रिश्ता चाहिए

नायाब चीज़ कौन सी बाज़ार में नहीं

नहीं है बहर-ओ-बर में ऐसा मेरे यार कोई

न मिरा ज़ोर न बस अब क्या है

मुझे ग़ुबार उड़ाता हुआ सवार लगा

मिली राह वो कि फ़रार का न पता चला

मिरी सिफ़ात का जब उस ने ए'तिराफ़ किया

मिरी गिरफ़्त में है ताएर-ए-ख़याल मिरा

मेरे लब तक जो न आई वो दुआ कैसी थी

माज़ी! तुझ से ''हाल'' मिरा शर्मिंदा है

मौजूदगी का उस की असर होने लगा है

कहने सुनने का अजब दोनों तरफ़ जोश रहा

कहीं कहीं से पुर-असरार हो लिया जाए

जो मुझ पे भारी हुई एक रात अच्छी तरह

झलकती है मिरी आँखों में बेदारी सी कोई

हिसार-ए-जिस्म मिरा तोड़-फोड़ डालेगा

हैं और कई रेत के तूफ़ाँ मिरे आगे

फ़राख़-दस्त का ये हुस्न-ए-तंग-दस्ती है

बर्क़ का ठीक अगर निशाना हो

बढ़ा जब उस की तवज्जोह का सिलसिला कुछ और

बात बढ़ती गई आगे मिरी नादानी से

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