Sad Poetry of Ghulam Murtaza Rahi

Sad Poetry of Ghulam Murtaza Rahi
नामग़ुलाम मुर्तज़ा राही
अंग्रेज़ी नामGhulam Murtaza Rahi
जन्म की तारीख1937

सहरा जंगल सागर पर्बत

रखता नहीं है दश्त सरोकार आब से

न जाने क़ैद में हूँ या हिफ़ाज़त में किसी की

कोई इक ज़ाइक़ा नहीं मिलता

हिसार-ए-जिस्म मिरा तोड़-फोड़ डालेगा

हर एक साँस मुझे खींचती है उस की तरफ़

अब जो आज़ाद हुए हैं तो ख़याल आया है

उबल पड़ा यक-ब-यक समुंदर तो मैं ने देखा

ठहर ठहर के मिरा इंतिज़ार करता चल

शक्ल सहरा की हमेशा जानी-पहचानी रहे

रखता नहीं है दश्त सरोकार आब से

पेड़ अगर ऊँचा मिलता है

मिली राह वो कि फ़रार का न पता चला

मेरे लब तक जो न आई वो दुआ कैसी थी

माज़ी! तुझ से ''हाल'' मिरा शर्मिंदा है

कहने सुनने का अजब दोनों तरफ़ जोश रहा

झलकती है मिरी आँखों में बेदारी सी कोई

हिसार-ए-जिस्म मिरा तोड़-फोड़ डालेगा

हैं और कई रेत के तूफ़ाँ मिरे आगे

बर्क़ का ठीक अगर निशाना हो

बढ़ा जब उस की तवज्जोह का सिलसिला कुछ और

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