निगाह-ए-लुत्फ़ को उल्फ़त-शिआर समझे थे
ज़रा से ख़ंदा-ए-गुल को बहार समझते थे
Gulzar
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बताए कौन किसी को निशान-ए-मंज़िल-ज़ीस्त
कुछ भी दुश्वार नहीं अज़्म-ए-जवाँ के आगे
और ऐ चश्म-ए-तरब बादा-ए-गुलफ़ाम अभी
वो करम हो कि सितम एक तअल्लुक़ है ज़रूर
जिस के वास्ते बरसों सई-ए-राएगाँ की है
ये ग़म नहीं है कि अब आह-ए-ना-रसा भी नहीं
वो दर्द-ए-इश्क़ जिस को हासिल-ए-ईमाँ भी कहते हैं
हर क़दम पर है एहतिसाब-ए-अमल
मौत के ब'अद भी मरने पे न राज़ी होना
न हो कुछ और तो वो दिल अता हो
मुझ को दिमाग़-ए-शेवन-ओ-आह-ओ-फ़ुग़ाँ नहीं
जबीं-ए-नवाज़ किसी की फ़ुसूँ-गरी क्यूँ है