Ghazals of Habeeb Musvi

Ghazals of Habeeb Musvi
नामहबीब मूसवी
अंग्रेज़ी नामHabeeb Musvi

वो यूँ शक्ल-ए-तर्ज़-ए-बयाँ खींचते हैं

वो उट्ठे हैं तेवर बदलते हुए

उस से क्या छुप सके बनाई बात

शराब पी जान तन में आई अलम से था दिल कबाब कैसा

शब को नाला जो मिरा ता-ब-फ़लक जाता है

शब कि मुतरिब था शराब-ए-नाब थी पैमाना था

सब में हूँ फिर किसी से सरोकार भी नहीं

रोना इन का काम है हर दम जल जल कर मर जाना भी

क़त्अ होता रहे इस तरह बयान-ए-वाइज़

मेहर-ओ-उल्फ़त से मआल-ए-तहज़ीब

लैस हो कर जो मिरा तर्क-ए-जफ़ा-कार चले

कोई बात ऐसी आज ऐ मेरी गुल-रुख़्सार बन जाए

किसी की जुब्बा-साई से कभी घिसता नहीं पत्थर

जबीन पर क्यूँ शिकन है ऐ जान मुँह है ग़ुस्से से लाल कैसा

जब शाम हुई दिल घबराया लोग उठ के बराए सैर चले

हुए ख़ल्क़ जब से जहाँ में हम हवस-ए-नज़ारा-ए-यार है

है निगहबाँ रुख़ का ख़ाल-रू-ए-दोस्त

है नौ-जवानी में ज़ोफ़-ए-पीरी बदन में रअशा कमर में ख़म है

है आठ पहर तू जल्वा-नुमा तिमसाल-ए-नज़र है परतव-ए-रुख़

गुलों का दौर है बुलबुल मज़े बहार में लूट

फ़िराक़ में दम उलझ रहा है ख़याल-ए-गेसू में जांकनी है

फ़रियाद भी मैं कर न सका बे-ख़बरी से

फ़लक की गर्दिशें ऐसी नहीं जिन में क़दम ठहरे

देख लो तुम ख़ू-ए-आतिश ऐ क़मर शीशे में है

दाग़-ए-दिल हैं ग़ैरत-ए-सद-लाला-ज़ार अब के बरस

चल नहीं सकते वहाँ ज़ेहन-ए-रसा के जोड़-तोड़

भला हो जिस काम में किसी का तो उस में वक़्फ़ा न कीजिएगा

बना के आईना-ए-तसव्वुर जहाँ दिल-ए-दाग़-दार देखा

बढ़ा दी इक नज़र में तू ने क्या तौक़ीर पत्थर की

अक़्ल पर पत्थर पड़े उल्फ़त में दीवाना हुआ

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