कुछ और भी हैं काम हमें ऐ ग़म-ए-जानाँ
कब तक कोई उलझी हुई ज़ुल्फ़ों को सँवारे
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दयार-ए-'दाग़'-ओ-'बेख़ुद' शहर-ए-देहली छोड़ कर तुझ को
ये और बात तेरी गली में न आएँ हम
तेरे होने से
तू आग में ऐ औरत ज़िंदा भी जली बरसों
रंग ओ बू-ए-गुलाब कह लूँगा
कैसे कहें कि याद-ए-यार रात जा चुकी बहुत
अफ़्सोस तुम्हें कार के शीशे का हुआ है
इक उम्र सुनाएँ तो हिकायत न हो पूरी
बहुत रौशन है शाम-ए-ग़म हमारी
कितना सुकूत है रसन-ओ-दार की तरफ़
दास्तान-ए-दिल-ए-दो-नीम
मुम्ताज़