मुझ को न सुना ख़िज़्र ओ सिकंदर के फ़साने
मेरे लिए यकसाँ है फ़ना हो कि बक़ा हो
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मबादा फिर असीर-ए-दाम-ए-अक़्ल-ओ-होश हो जाऊँ
उस की सूरत को देखता हूँ मैं
मेरे आक़ा तुझे बंदे का ख़याल आ ही गया
तराना-ए-पाकिस्तान
कोई दवा न दे सके मशवरा-ए-दुआ दिया
वफ़ा का लाज़मी था ये नतीजा
सुकून-ए-ज़िंदगी तर्क-ए-अमल का नाम है शायद
है अज़ल की इस ग़लत बख़्शी पे हैरानी मुझे
'हफ़ीज़' अहल-ए-ज़बाँ कब मानते थे
जो मिरे दिल में है कहने दीजिए
अजनबियों के शहर में गुम हूँ मगर मैं कौन हूँ
वफ़ा जिस से की बेवफ़ा हो गया