पेड़ उजड़ते जाते हैं
शाख़ों की नादानी से
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दिखाई देने लगी थी ख़ुशबू
सेहन-ए-आइंदा को इम्कान से धोए जाएँ
जिस की सौंधी सौंधी ख़ुशबू आँगन आँगन पलती थी
कब मुझे उस ने इख़्तियार दिया
दिल के सूने सेहन में गूँजी आहट किस के पाँव की
उम्र की अव्वलीं अज़ानों में
पूछता फिरता हूँ गलियों में कोई है कोई है
जब मुंडेरों पे परिंदों की कुमक जारी थी
आख़िरी बार मैं कब उस से मिला याद नहीं
सब्ज़-खेतों से उमड़ती रौशनी तस्वीर की
भरवा देना मिरे कासे को
वो निगह जब मुझे पुकारती थी