आख़िरी बार मैं कब उस से मिला याद नहीं
बस यही याद है इक शाम बहुत भारी थी
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जिस की सौंधी सौंधी ख़ुशबू आँगन आँगन पलती थी
हुज्रा-ए-ख़्वाब से बाहर निकला
हार दिया है उजलत में
दिल की याद-दहानी से
भुला दिया भी अगर जाए सरसरी किया जाए
उम्र की अव्वलीं अज़ानों में
पेड़ उजड़ते जाते हैं
सेहन-ए-आइंदा को इम्कान से धोए जाएँ
दिखाई देने लगी थी ख़ुशबू
गली का मंज़र बदल रहा था