आँख बीनाई गँवा बैठी तो
तेरी तस्वीर से मंज़र निकला
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वो निगह जब मुझे पुकारती थी
पूछता फिरता हूँ गलियों में कोई है कोई है
बस एक लम्हा तिरे वस्ल का मयस्सर हो
सेहन-ए-आइंदा को इम्कान से धोए जाएँ
बे-सबब हो के बे-क़रार आया
कच्ची क़ब्रों पर सजी ख़ुशबू की बिखरी लाश पर
रोज़ मैं उस को जीत जाता था
उम्र की अव्वलीं अज़ानों में
दिखाई देने लगी थी ख़ुशबू
हुज्रा-ए-ख़्वाब से बाहर निकला
जब मुंडेरों पे परिंदों की कुमक जारी थी
भुला दिया भी अगर जाए सरसरी किया जाए