मुझ को 'जलील' कौन कहेगा शिकस्ता-दिल
खाया था एक ज़ख़्म सो वो बे-निशाँ रहा
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फाँदती फिरती हैं एहसास के जंगल रूहें
आई पतझड़ गिरे फ़स्ल-ए-गुल के निशाँ रात-भर में
आरज़ू की हमा-हामी और मैं
इक भयानक तीरगी है रौशनी ऐ रौशनी
ये रात काश इसी दिलकशी से ढलती रहे
दिल की तरफ़ निगाह-ए-तग़ाफ़ुल रहा करे
हवा के दोश पे उड़ती हुई ख़बर तो सुनो
शब की दहलीज़ से किस हाथ ने फेंका पत्थर
बरसों तिरी तलब में सफ़ीना रवाँ रहा
ख़ला के दश्त में ये तुर्फ़ा माजरा भी है
कर के संग-ए-ग़म-ए-हस्ती के हवाले मुझ को