जबीं पर सादगी नीची निगाहें बात में नरमी
मुख़ातिब कौन कर सकता है तुम को लफ़्ज़-ए-क़ातिल से
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ग़ुर्बत की सुब्ह में भी नहीं है वो रौशनी
सितम हो जाए तम्हीद-ए-करम ऐसा भी होता है
चोरी चोरी हम से तुम आ कर मिले थे जिस जगह
फ़ैज़-ए-मोहब्बत से है क़ैद-ए-मिहन
कहाँ हम कहाँ वस्ल-ए-जानाँ की 'हसरत'
'हसरत' जो सुन रहे हैं वो अहल-ए-वफ़ा का हाल
उस बुत के पुजारी हैं मुसलमान हज़ारों
सभी कुछ हो चुका उन का हमारा क्या रहा 'हसरत'
पैरव-ए-मस्लक-ए-तस्लीम-ओ-रज़ा होते हैं
पैहम दिया प्याला-ए-मय बरमला दिया
वो चुप हो गए मुझ से क्या कहते कहते
फिर और तग़ाफ़ुल का सबब क्या है ख़ुदाया