ज़िंदगी की बात सुन कर क्या कहें
इक तमन्ना थी तक़ाज़ा बन गई
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शम्अ के मानिंद अहल-ए-अंजुमन से बे-नियाज़
हरीफ़-ए-विसाल
पिंदार-ए-ज़ोहद हो कि ग़ुरूर-ए-बरहमनी
'शाइर' उन की दोस्ती का अब भी दम भरते हैं आप
मैं कुछ न कहूँ और ये चाहूँ कि मिरी बात
इस दश्त पे एहसाँ न कर ऐ अब्र-ए-रवाँ और
चाँद ने आज जब इक नाम लिया आख़िर-ए-शब
क्या क्या न ज़िंदगी के फ़साने रक़म हुए
जवाब
हारून की आवाज़
सूरज को ये ग़म है कि समुंदर भी है पायाब
इस दश्त-ए-सुख़न में कोई क्या फूल खिलाए