हुज़ूर आप कोई फ़ैसला करें तो सही
हैं सर झुके हुए दरबार भी लगा हुआ है
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जहाँ इक शख़्स भी मिलता नहीं है चाहने से
मिरे दिल के अकेले घर में 'राहत'
हर एक ख़्वाब की ताबीर थोड़ी होती है
वक़्त की आँख से कुछ ख़्वाब नए माँगता है
बारिश के क़तरे के दुख से ना-वाक़िफ़ हो
फ़साना अब कोई अंजाम पाना चाहता है
ख़ुशी मेरी गवारा थी न क़िस्मत को न दुनिया को
तअल्लुक़ की नई इक रस्म अब ईजाद करना है
ये कहना था जो दुनिया कह रही है
बना कर एक घर दिल की ज़मीं पर उस की यादों का
उसे भी ज़िंदगी करनी पड़ेगी 'मीर' जैसी
वो मुझ को आज़माता ही रहा है ज़िंदगी भर