क्यूँ ज़ेहन में ये खौलता लावा होता
ख़ुद आप पे रहम आए न ऐसा होता
होना था तआ'रुफ़ कि क़यामत टूटी
ऐ काश कि अपने को न जाना होता
Habib Jalib
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वो दिल समो ले जो दामन में काएनात का कर्ब
यगानगी में भी दुख ग़ैरियत के सहता हूँ
उम्मीदों का इक हार बन टूट गया
नादीदा ख़लाओं से गुज़र आई है
छाया है बगूलों का फ़ुसूँ मंज़िल तक
तय किया इस तरह सफ़र तन्हा
जैसे जैसे दर्द का पिंदार बढ़ता जाए है
वो ताज है सर पर कि दबा जाता हूँ
वक़्त गर्दिश में ब-अंदाज़-ए-दिगर है कि जो था
एहसास के हर रंग को अपना लेता
सहरा में भटकता हुआ इक दरिया हूँ