नादीदा ख़लाओं से गुज़र आई है
किस तरह उठाए हुए सर आई है
एहसास के पेचीदा मराहिल की क़सम
चेहरे की थकन दिल में उतर आई है
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तय किया इस तरह सफ़र तन्हा
यगानगी में भी दुख ग़ैरियत के सहता हूँ
वो ताज है सर पर कि दबा जाता हूँ
वो दिल जो था किसी के ग़म का महरम हो गया रुस्वा
एहसास के हर रंग को अपना लेता
छाया है बगूलों का फ़ुसूँ मंज़िल तक
जैसे जैसे दर्द का पिंदार बढ़ता जाए है
रह-ए-तलब में बड़ी तुर्फ़गी के साथ चले
ठहरेगा वही रन में जो हिम्मत का धनी है
वो दिल समो ले जो दामन में काएनात का कर्ब
उस के सिवा क्या अपनी दौलत
ख़्वाबों के साथ ज़ेहन की अंगड़ाइयाँ भी हैं