किस लिए कतरा के जाता है मुसाफ़िर दम तो ले
आज सूखा पेड़ हूँ कल तेरा साया मैं ही था
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करें सलाम उसे तो कोई जवाब न दे
देखा तो कोई और था सोचा तो कोई और
थी हौसले की बात ज़माने में ज़िंदगी
मुझे न देखो मिरे जिस्म का धुआँ देखो
नाम को भी न किसी आँख से आँसू निकला
शीशे का आदमी हूँ मिरी ज़िंदगी है क्या
लबों पर प्यास हो तो आस के बादल भरे रखियो
ख़ुद अपने आप से लेना था इंतिक़ाम मुझे
न कू-ए-यार में ठहरा न अंजुमन में रहा
दुनिया बहुत क़रीब से उठ कर चली गई
ज़िंदगी अपनी मुसलसल चाहतों का इक सफ़र