नाम को भी न किसी आँख से आँसू निकला
शम्अ महफ़िल में जलाती रही परवाने को
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मिशअल-ब-कफ़ कभी तो कभी दिल-ब-दस्त था
ये और बात है कि बरहना थी ज़िंदगी
बस एक बार ही तोड़ा जहाँ ने अहद-ए-वफ़ा
कोई तो होगा जिस को मिरा इंतिज़ार है
दुनिया बहुत क़रीब से उठ कर चली गई
ज़िंदगी वादी ओ सहरा का सफ़र है क्यूँ है
गुलशन में ले के चल किसी सहरा में ले के चल
ख़ुद अपने आप से लेना था इंतिक़ाम मुझे
दुनिया लुटी तो दूर से तकता ही रह गया
तिरी ज़मीं से उठेंगे तो आसमाँ होंगे