तिरी ज़मीं से उठेंगे तो आसमाँ होंगे
हम ऐसे लोग ज़माने में फिर कहाँ होंगे
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ज़िंदगी वादी ओ सहरा का सफ़र है क्यूँ है
ग़ज़ल हो गई जब भी सोचा तुम्हें
मोहब्बतों में जो मिट मिट के शाहकार हुआ
न दिल में कोई ग़म रहे न मेरी आँख नम रहे
देखा तो कोई और था सोचा तो कोई और
थी हौसले की बात ज़माने में ज़िंदगी
अना ने टूट के कुछ फ़ैसला किया ही नहीं
बस एक बार ही तोड़ा जहाँ ने अहद-ए-वफ़ा
मुझे न देखो मिरे जिस्म का धुआँ देखो
ख़ुद अपने आप से लेना था इंतिक़ाम मुझे