नहीं है तुम में सलीक़ा जो घर बनाने का
तो 'अश्क' जाओ परिंदों के आशियाँ देखो
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कोई भरोसा नहीं अब्र के बरसने का
ये और बात है कि बरहना थी ज़िंदगी
उस की इक दुनिया हूँ मैं और मेरी इक दुनिया है वो
नाम को भी न किसी आँख से आँसू निकला
ज़िंदगी वादी ओ सहरा का सफ़र है क्यूँ है
न दिल में कोई ग़म रहे न मेरी आँख नम रहे
मोहब्बतों में जो मिट मिट के शाहकार हुआ
करें सलाम उसे तो कोई जवाब न दे
बस एक बार ही तोड़ा जहाँ ने अहद-ए-वफ़ा
ग़ज़ल हो गई जब भी सोचा तुम्हें
दुनिया बहुत क़रीब से उठ कर चली गई
न कू-ए-यार में ठहरा न अंजुमन में रहा