ये वस्ल की रुत है कि जुदाई का है मौसम
ये गुलशन-ए-दिल है कि बयाबान कहीं का
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फिर उठाया जाऊँगा मिट्टी में मिल जाने के बाद
किस किस को बताऊँ कि मैं बुज़दिल नहीं 'राग़िब'
हो चराग़-ए-इल्म रौशन ठीक से
अंदाज़-ए-सितम उन का निहायत ही अलग है
वो कहते हैं कि 'राग़िब' तुम नहीं रखते ख़याल अपना
दिन में आने लगे हैं ख़्वाब मुझे
पढ़ता रहता हूँ आप का चेहरा
मुज़्तरिब आप के बिना है जी
सख़्त-जानी की बदौलत अब भी हम हैं ताज़ा-दम
तक़दीर-ए-वफ़ा का फूट जाना
इंकार ही कर दीजिए इक़रार नहीं तो
चाहतों का सिलसिला है मुस्तक़िल