जब नहीं कुछ ए'तिबार-ए-ज़िंदगी
इस जहाँ का शाद क्या नाशाद क्या
Gulzar
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शैख़ के हाल पर तअस्सुफ़ है
कुछ समझ कर उस मह-ए-ख़ूबी से की थी दोस्ती
लोग जब तेरा नाम लेते हैं
जफ़ाएँ होती हैं घुटता है दम ऐसा भी होता है
करता है ऐ 'असर' दिल-ए-ख़ूँ-गश्ता का गिला
अब जहाँ पर है शैख़ की मस्जिद
दिल से क्या पूछता है ज़ुल्फ़-ए-गिरह-गीर से पूछ
मर ही कर उट्ठेंगे तेरे दर से हम
सुब्ह-दम रोती जो तेरी बज़्म से जाती है शम्अ
अपने दर से जो उठाते हैं हमें
ख़ूब-ओ-ज़िश्त-ए-जहाँ का फ़र्क़ न पूछ
पा रहा है दिल मुसीबत के मज़े