अब जहाँ पर है शैख़ की मस्जिद
पहले उस जा शराब-ख़ाना था
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जफ़ाएँ होती हैं घुटता है दम ऐसा भी होता है
मेरे सर में जो रात चक्कर था
मुश्किल का सामना हो तो हिम्मत न हारिए
कैसा आना कैसा जाना मेरे घर क्या आओगे
तुम्हारे आशिक़ों में बे-क़रारी क्या ही फैली है
ग़म नहीं मुझ को जो वक़्त-ए-इम्तिहाँ मारा गया
रोते हैं सुन के कहानी मेरी
आइना देख के फ़रमाते हैं
हुस्न की जिंस ख़रीदार लिए फिरती है
दिल से क्या पूछता है ज़ुल्फ़-ए-गिरह-गीर से पूछ
क़ैद-ए-तन से रूह है नाशाद क्या
बनाते हैं हज़ारों ज़ख़्म-ए-ख़ंदाँ ख़ंजर-ए-ग़म से