अपने लहू में ज़हर भी ख़ुद घोलता हूँ मैं
सोज़-ए-दरूँ किसी पे नहीं खोलता हूँ मैं
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पयाम ले के हवा दूर तक नहीं जाती
ये जो आबाद होने जा रहे हैं
अपने हिस्से में ही आने थे ख़सारे सारे
उस का बदन भी चाहिए और दिल भी चाहिए
वक़्त हर ज़ख़्म को भर देता है कुछ भी कीजे
हार ही जीत है आईन-ए-वफ़ा की रू से
ख़्वाब, उम्मीद, तमन्नाएँ, तअल्लुक़, रिश्ते
मौसम-ए-गुल है तिरे सुर्ख़ दहन की हद तक
हम न दुनिया के हैं न दीं के हैं
क्या जाने शाख़-ए-वक़्त से किस वक़्त गिर पड़ूँ