अक्सर ने है आख़िरत की खेती बोई
हम आलम-ए-ख़्वाब में हैं या हम हैं ख़्वाब
जब गू-ए-ज़मीं ने उस पे डाला साया
जो चाहिए वो तो है अज़ल से मौजूद
दीन और दुनिया का तफ़रक़ा है मोहमल
है इश्क़ से हुस्न की सफ़ाई ज़ाहिर
अब क़ौम की जो रस्म है सो ऊल-जुलूल
कछवा और ख़रगोश
क़ौस-ए-क़ुज़ह
नक़्क़ाश से मुमकिन है कि हो नक़्श ख़िलाफ़
मुलम्मा की अँगूठी
बे-कार न वक़्त को गुज़ारो यारो