पसीने से मिरे अब तो ये रुमाल
चारासाज़ों की चारा-साज़ी से
थी जो वो इक तमसील-ए-माज़ी आख़िरी मंज़र उस का ये था
जो रानाई निगाहों के लिए फ़िरदौस-ए-जल्वा है
कौन सूद-ओ-ज़ियाँ की दुनिया में
इश्क़ समझे थे जिस को वो शायद
है मोहब्बत हयात की लज़्ज़त
वो कसी दिन न आ सके पर उसे
ये तो बढ़ती ही चली जाती है मीआद-ए-सितम
क्या बताऊँ कि सह रहा हूँ मैं
शर्म दहशत झिझक परेशानी
उस के और अपने दरमियान में अब