पसीने से मिरे अब तो ये रूमाल
है नक़्द-ए-नाज़-ए-उल्फ़त का ख़ज़ीना
ये रूमाल अब मुझी को बख़्श दीजे
नहीं तो लाइए मेरा पसीना
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चाँद की पिघली हुई चाँदी में
साल-हा-साल और इक लम्हा
मेरी अक़्ल-ओ-होश की सब हालतें
जो हक़ीक़त है उस हक़ीक़त से
इश्क़ समझे थे जिस को वो शायद
मिरी जब भी नज़र पड़ती है तुझ पर
चारा-गर भी जो यूँ गुज़र जाएँ
वो कसी दिन न आ सके पर उसे
शर्म दहशत झिझक परेशानी
क्या बताऊँ कि सह रहा हूँ मैं
पास रह कर जुदाई की तुझ से
चारासाज़ों की चारा-साज़ी से