चाँद की पिघली हुई चाँदी में
आओ कुछ रंग-ए-सुख़न घोलेंगे
तुम नहीं बोलती हो मत बोलो
हम भी अब तुम से नहीं बोलेंगे
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जो रानाई निगाहों के लिए फ़िरदौस-ए-जल्वा है
सर में तकमील का था इक सौदा
ये तेरे ख़त तिरी ख़ुशबू ये तेरे ख़्वाब-ओ-ख़याल
वो कसी दिन न आ सके पर उसे
क्या बताऊँ कि सह रहा हूँ मैं
ये तो बढ़ती ही चली जाती है मीआद-ए-सितम
थी जो वो इक तमसील-ए-माज़ी आख़िरी मंज़र उस का ये था
मेरी अक़्ल-ओ-होश की सब हालतें
शर्म दहशत झिझक परेशानी
इश्क़ समझे थे जिस को वो शायद
हर तंज़ किया जाए हर इक तअना दिया जाए
साल-हा-साल और इक लम्हा