साल-हा-साल और इक लम्हा
मैं ने हर बार तुझ से मिलते वक़्त
ये तो बढ़ती ही चली जाती है मीआद-ए-सितम
मेरी अक़्ल-ओ-होश की सब हालतें
सर में तकमील का था इक सौदा
वो कसी दिन न आ सके पर उसे
उस के और अपने दरमियान में अब
चारासाज़ों की चारा-साज़ी से
जो हक़ीक़त है उस हक़ीक़त से
है मोहब्बत हयात की लज़्ज़त
मिरी जब भी नज़र पड़ती है तुझ पर
जो रानाई निगाहों के लिए फ़िरदौस-ए-जल्वा है