मैं ने हर बार तुझ से मिलते वक़्त
तुझ से मिलने की आरज़ू की है
तेरे जाने के ब'अद भी मैं ने
तेरी ख़ुशबू से गुफ़्तुगू की है
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मिरी जब भी नज़र पड़ती है तुझ पर
चारासाज़ों की चारा-साज़ी से
साल-हा-साल और इक लम्हा
सर में तकमील का था इक सौदा
इश्क़ समझे थे जिस को वो शायद
वो कसी दिन न आ सके पर उसे
ये तो बढ़ती ही चली जाती है मीआद-ए-सितम
पास रह कर जुदाई की तुझ से
चारा-गर भी जो यूँ गुज़र जाएँ
पसीने से मिरे अब तो ये रुमाल
है मोहब्बत हयात की लज़्ज़त
थी जो वो इक तमसील-ए-माज़ी आख़िरी मंज़र उस का ये था