बुताँ के इश्क़ ने बे-इख़्तियार कर डाला
'मीर' को ज़ोफ़ में मैं देख कहा कुछ कहिए
हो आशिक़ों में उस के तो आओ 'मीर'-साहिब
गह सरगुज़िश्त उन ने फ़रहाद की निकाली
सुना है चाह का दावा तुम्हारा
इतने भी हम ख़राब न होते रहते
यही दर्द-ए-जुदाई है जो इस शब
ताब-ओ-ताक़त को तो रुख़्सत हुए मुद्दत गुज़री
न जानूँ 'मीर' क्यूँ ऐसा है चिपका
तुम तो ऐ मेहरबान अनूठे निकले
न समझा गया अब्र क्या देख कर
फिर भी करते हैं 'मीर'-साहिब इश्क़