हरीम-ए-दिल में ठहर या सरा-ए-जान में रुक
ये सब मकान हैं तेरे किसी मकान में रुक
Wasi Shah
Jaun Eliya
Parveen Shakir
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Gulzar
Rahat Indori
Ahmad Faraz
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मैं ने कैसे कैसे मोती ढूँडे हैं
क्या पता जाने कहाँ आग लगी
ख़ुद अपने क़त्ल का इल्ज़ाम ढो रहा हूँ अभी
तमाम शहर में बिखरा पड़ा है मेरा वजूद
मुझ में थोड़ी सी जगह भी नहीं नफ़रत के लिए
मैं ही आईना-ए-दुनिया में चला आया हूँ
एक दरिया को दिखाई थी कभी प्यास अपनी
मैं अधूरा सा हूँ उस के अंदर
न इंतिज़ार करो कल का आज दर्ज करो
जश्न होता है वहाँ रात ढले
ये कैसी आग मुझ में जल रही है