मैं ने कैसे कैसे मोती ढूँडे हैं
लेकिन तेरे आगे सब कुछ पत्थर है
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एक दरिया को दिखाई थी कभी प्यास अपनी
जश्न होता है वहाँ रात ढले
मैं ही आईना-ए-दुनिया में चला आया हूँ
मैं अधूरा सा हूँ उस के अंदर
क्या पता जाने कहाँ आग लगी
ख़ुद अपने क़त्ल का इल्ज़ाम ढो रहा हूँ अभी
तू ने ऐ वक़्त पलट कर भी कभी देखा है
मेरी आँखों से भी इक बार निकल
तमाम शहर में बिखरा पड़ा है मेरा वजूद
मुझ में थोड़ी सी जगह भी नहीं नफ़रत के लिए
ये कैसी आग मुझ में जल रही है