एक दरिया को दिखाई थी कभी प्यास अपनी
फिर नहीं माँगा कभी मैं ने दोबारा पानी
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हरीम-ए-दिल में ठहर या सरा-ए-जान में रुक
मैं अधूरा सा हूँ उस के अंदर
तमाम शहर में बिखरा पड़ा है मेरा वजूद
तू ने ऐ वक़्त पलट कर भी कभी देखा है
ये कैसी आग मुझ में जल रही है
ख़ुद अपने क़त्ल का इल्ज़ाम ढो रहा हूँ अभी
जश्न होता है वहाँ रात ढले
क्या पता जाने कहाँ आग लगी
मुझ में थोड़ी सी जगह भी नहीं नफ़रत के लिए
न इंतिज़ार करो कल का आज दर्ज करो
तेरी दहलीज़ पे इक़रार की उम्मीद लिए