ख़ुद अपने क़त्ल का इल्ज़ाम ढो रहा हूँ अभी
मैं अपनी लाश पे सर रख के रो रहा हूँ अभी
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तमाम शहर में बिखरा पड़ा है मेरा वजूद
मेरी आँखों से भी इक बार निकल
हरीम-ए-दिल में ठहर या सरा-ए-जान में रुक
मैं ही आईना-ए-दुनिया में चला आया हूँ
एक दरिया को दिखाई थी कभी प्यास अपनी
तू ने ऐ वक़्त पलट कर भी कभी देखा है
देखते रहते हैं ख़ुद अपना तमाशा दिन रात
क्या पता जाने कहाँ आग लगी
जश्न होता है वहाँ रात ढले
तेरी दहलीज़ पे इक़रार की उम्मीद लिए
मुझ में थोड़ी सी जगह भी नहीं नफ़रत के लिए
न इंतिज़ार करो कल का आज दर्ज करो