तेरी दहलीज़ पे इक़रार की उम्मीद लिए
फिर खड़े हैं तिरे इंकार के मारे हुए लोग
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मैं अधूरा सा हूँ उस के अंदर
ख़ुद अपने क़त्ल का इल्ज़ाम ढो रहा हूँ अभी
जश्न होता है वहाँ रात ढले
मैं ने कैसे कैसे मोती ढूँडे हैं
एक दरिया को दिखाई थी कभी प्यास अपनी
क्या पता जाने कहाँ आग लगी
मेरी आँखों से भी इक बार निकल
तू ने ऐ वक़्त पलट कर भी कभी देखा है
देखते रहते हैं ख़ुद अपना तमाशा दिन रात
तमाम शहर में बिखरा पड़ा है मेरा वजूद
मैं ही आईना-ए-दुनिया में चला आया हूँ
ये कैसी आग मुझ में जल रही है