तू ने ऐ वक़्त पलट कर भी कभी देखा है
कैसे हैं सब तिरी रफ़्तार के मारे हुए लोग
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क्या पता जाने कहाँ आग लगी
मैं अधूरा सा हूँ उस के अंदर
तमाम शहर में बिखरा पड़ा है मेरा वजूद
जश्न होता है वहाँ रात ढले
न इंतिज़ार करो कल का आज दर्ज करो
मेरी आँखों से भी इक बार निकल
हरीम-ए-दिल में ठहर या सरा-ए-जान में रुक
मैं ने कैसे कैसे मोती ढूँडे हैं
मुझ में थोड़ी सी जगह भी नहीं नफ़रत के लिए
ये कैसी आग मुझ में जल रही है
ख़ुद अपने क़त्ल का इल्ज़ाम ढो रहा हूँ अभी