तमाम शहर में बिखरा पड़ा है मेरा वजूद
कोई बताए भला किस तरह चुनूँ ख़ुद को
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मेरी आँखों से भी इक बार निकल
मैं अधूरा सा हूँ उस के अंदर
तेरी दहलीज़ पे इक़रार की उम्मीद लिए
मैं ही आईना-ए-दुनिया में चला आया हूँ
न इंतिज़ार करो कल का आज दर्ज करो
मुझ में थोड़ी सी जगह भी नहीं नफ़रत के लिए
हरीम-ए-दिल में ठहर या सरा-ए-जान में रुक
एक दरिया को दिखाई थी कभी प्यास अपनी
क्या पता जाने कहाँ आग लगी
ख़ुद अपने क़त्ल का इल्ज़ाम ढो रहा हूँ अभी
मैं ने कैसे कैसे मोती ढूँडे हैं