क्या पता जाने कहाँ आग लगी
हर तरफ़ सिर्फ़ धुआँ है मुझ में
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तेरी दहलीज़ पे इक़रार की उम्मीद लिए
न इंतिज़ार करो कल का आज दर्ज करो
मेरी आँखों से भी इक बार निकल
तू ने ऐ वक़्त पलट कर भी कभी देखा है
मुझ में थोड़ी सी जगह भी नहीं नफ़रत के लिए
देखते रहते हैं ख़ुद अपना तमाशा दिन रात
तमाम शहर में बिखरा पड़ा है मेरा वजूद
हरीम-ए-दिल में ठहर या सरा-ए-जान में रुक
जश्न होता है वहाँ रात ढले
एक दरिया को दिखाई थी कभी प्यास अपनी
मैं ही आईना-ए-दुनिया में चला आया हूँ
ये कैसी आग मुझ में जल रही है