देखते रहते हैं ख़ुद अपना तमाशा दिन रात
हम हैं ख़ुद अपने ही किरदार के मारे हुए लोग
Allama Iqbal
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Wasi Shah
Rahat Indori
Habib Jalib
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न इंतिज़ार करो कल का आज दर्ज करो
मैं ने कैसे कैसे मोती ढूँडे हैं
तेरी दहलीज़ पे इक़रार की उम्मीद लिए
एक दरिया को दिखाई थी कभी प्यास अपनी
तू ने ऐ वक़्त पलट कर भी कभी देखा है
मुझ में थोड़ी सी जगह भी नहीं नफ़रत के लिए
हरीम-ए-दिल में ठहर या सरा-ए-जान में रुक
ख़ुद अपने क़त्ल का इल्ज़ाम ढो रहा हूँ अभी
जश्न होता है वहाँ रात ढले
मैं अधूरा सा हूँ उस के अंदर
मेरी आँखों से भी इक बार निकल