'अज़फ़री' ग़ुंचा-ए-दिल बंद और आई है बहार
सैर-ए-गुल को कि ये शायद ब-तकल्लुफ़ खिल ले
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है जानी तुझ में सब ख़ूबी प जाँ सा
ग़ुबार दिल में भरा किर्किरी सलाम-अलैक
काकुल नहीं लटकते कुछ उन की छातियों पर
सूनी गई में हुई यार से मुढभेड़ आज
सोज़-ए-शम्-ए-हिज्र से शब जल गए
ख़िज़ाँ तन्हा न सैर-ए-बोस्ताँ को जा बिगाड़ आई
जान आ बर में कि फिर कुछ ग़म-ओ-वसवास नहीं
तिरी तेग़ अबरू की टुक सामने कर देखें तो
हम इश्क़ तेरे हाथ से क्या क्या न देखीं हालतें
सीने का अब तक है ज़ख़्म आला मियाँ
धानी जूड़े पे तिरे साँवले मैं मरता हूँ
आते आते तर्फ़ मेरे मुड़ के फिर कीधर चले