ज़िंदगी चुभ रही है काँटा सी
गर ये निकले तो सब ख़लल जावे
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ये दीवाने हैं महव-ए-दीद दिलबर
तू बातों में बिगड़ जाता है मुझ से
तू आशिक़ों के तईं जब से क़त्ल-ए-नाज़ किया
कहा किस ने कि तुम ये वो न बोलो
तुझ बिन और हम को सूझता ही नहीं
हम गुनहगारों के क्या ख़ून का फीका था रंग
एक बर्छी से मार जाते हो
जान आ बर में कि फिर कुछ ग़म-ओ-वसवास नहीं
जब कि ज़ुल्फ़ उस की गले खा बल पड़ी
आते आते तर्फ़ मेरे मुड़ के फिर कीधर चले
ताक लागी तिरी दुख़्तर से हमारी ऐ ताक
जी में क्या क्या मिरी उमाहा था