फिर मुझे दीदा-ए-तर याद आया
ख़तर है रिश्ता-ए-उल्फ़त रग-ए-गर्दन न हो जावे
गर तुझ को है यक़ीन-ए-इजाबत दुआ न माँग
करे है क़त्ल लगावट में तेरा रो देना
इब्न-ए-मरयम हुआ करे कोई
महरम नहीं है तू ही नवा-हा-ए-राज़ का
दोनों जहान दे के वो समझे ये ख़ुश रहा
दोनों जहाँ दे के वो समझे ये ख़ुश रहा
नुक्ता-चीं है ग़म-ए-दिल उस को सुनाए न बने
वो चीज़ जिस के लिए हम को हो बहिश्त अज़ीज़
बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल है दुनिया मिरे आगे
पी जिस क़दर मिले शब-ए-महताब में शराब