ना-कर्दा गुनाहों की भी हसरत की मिले दाद
लो हम मरीज़-ए-इश्क़ के बीमार-दार हैं
जो ये कहे कि रेख़्ता क्यूँके हो रश्क-ए-फ़ारसी
करे है क़त्ल लगावट में तेरा रो देना
बीम-ए-रक़ीब से नहीं करते विदा-ए-होश
ज़ोफ़ में तअना-ए-अग़्यार का शिकवा क्या है
है काएनात को हरकत तेरे ज़ौक़ से
करे है बादा तिरे लब से कस्ब-ए-रंग-ए-फ़रोग़
कोई दिन गर ज़िंदगानी और है
घर में था क्या कि तिरा ग़म उसे ग़ारत करता
हुस्न-ए-मह गरचे ब-हंगाम-ए-कमाल अच्छा है
'ग़ालिब' छुटी शराब पर अब भी कभी कभी