जिस ज़ख़्म की हो सकती हो तदबीर रफ़ू की
फिर उसी बेवफ़ा पे मरते हैं
अपनी गली में मुझ को न कर दफ़्न बाद-ए-क़त्ल
कहाँ मय-ख़ाने का दरवाज़ा 'ग़ालिब' और कहाँ वाइज़
रहे न जान तो क़ातिल को ख़ूँ-बहा दीजे
मैं उन्हें छेड़ूँ और वो कुछ न कहें
नज़र लगे न कहीं इन के दस्त-ओ-बाज़ू को
अफ़्सोस कि दंदाँ का किया रिज़्क़ फ़लक ने
हर-चंद हो मुशाहिदा-ए-हक़ की गुफ़्तुगू
फिर हुआ वक़्त कि हो बाल-कुशा मौज-ए-शराब
ताब लाए ही बनेगी 'ग़ालिब'
'ग़ालिब' न कर हुज़ूर में तू बार बार अर्ज़