वो मिरी चीन-ए-जबीं से ग़म-ए-पिन्हाँ समझा
जादा-ए-रह ख़ुर को वक़्त-ए-शाम है तार-ए-शुआअ'
लाज़िम था कि देखो मिरा रस्ता कोई दिन और
बंदगी में भी वो आज़ादा ओ ख़ुद-बीं हैं कि हम
लरज़ता है मिरा दिल ज़हमत-ए-मेहर-ए-दरख़्शाँ पर
ना-कर्दा गुनाहों की भी हसरत की मिले दाद
करे है बादा तिरे लब से कस्ब-ए-रंग-ए-फ़रोग़
रहा गर कोई ता-क़यामत सलामत
सोहबत में ग़ैर की न पड़ी हो कहीं ये ख़ू
अफ़्सोस कि दंदाँ का किया रिज़्क़ फ़लक ने
बे-ख़ुदी बे-सबब नहीं 'ग़ालिब'
क्या वो नमरूद की ख़ुदाई थी