निस्यह-ओ-नक़्द-ए-दो-आलम की हक़ीक़त मालूम
मैं ने जुनूँ से की जो 'असद' इल्तिमास-ए-रंग
दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है
ख़ूब था पहले से होते जो हम अपने बद-ख़्वाह
एक एक क़तरे का मुझे देना पड़ा हिसाब
कभी नेकी भी उस के जी में गर आ जाए है मुझ से
हर क़दम दूरी-ए-मंज़िल है नुमायाँ मुझ से
इस सादगी पे कौन न मर जाए ऐ ख़ुदा
साबित हुआ है गर्दन-ए-मीना पे ख़ून-ए-ख़ल्क़
सीखे हैं मह-रुख़ों के लिए हम मुसव्वरी
हूँ मैं भी तमाशाई-ए-नैरंग-ए-तमन्ना
वाँ पहुँच कर जो ग़श आता पए-हम है हम को