मैं भी रुक रुक के न मरता जो ज़बाँ के बदले
मुद्दत हुई है यार को मेहमाँ किए हुए
देखिए लाती है उस शोख़ की नख़वत क्या रंग
दर-ख़ूर-ए-क़हर-ओ-ग़ज़ब जब कोई हम सा न हुआ
ता फिर न इंतिज़ार में नींद आए उम्र भर
देखना तक़रीर की लज़्ज़त कि जो उस ने कहा
काफ़ी है निशानी तिरा छल्ले का न देना
क्यूँ न फ़िरदौस में दोज़ख़ को मिला लें यारब
घर में था क्या कि तिरा ग़म उसे ग़ारत करता
कुछ तो पढ़िए कि लोग कहते हैं
काबा किस मुँह से जाओगे 'ग़ालिब'
बात पर वाँ ज़बान कटती है