ख़मोशियों में तमाशा अदा निकलती है
सब कहाँ कुछ लाला-ओ-गुल में नुमायाँ हो गईं
हम कहाँ के दाना थे किस हुनर में यकता थे
'ग़ालिब' न कर हुज़ूर में तू बार बार अर्ज़
उग रहा है दर-ओ-दीवार पे सब्ज़ा 'ग़ालिब'
मय वो क्यूँ बहुत पीते बज़्म-ए-ग़ैर में या रब
कहूँ जो हाल तो कहते हो मुद्दआ' कहिए
है काएनात को हरकत तेरे ज़ौक़ से
हुए मर के हम जो रुस्वा हुए क्यूँ न ग़र्क़-ए-दरिया
पुर हूँ मैं शिकवे से यूँ राग से जैसे बाजा
मैं भला कब था सुख़न-गोई पे माइल 'ग़ालिब'
रहिए अब ऐसी जगह चल कर जहाँ कोई न हो