क्या तंग हम सितम-ज़दगाँ का जहान है
दश्ना-ए-ग़म्ज़ा जाँ-सिताँ नावक-ए-नाज़ बे-पनाह
सुनते हैं जो बहिश्त की तारीफ़ सब दुरुस्त
ता फिर न इंतिज़ार में नींद आए उम्र भर
हुई मुद्दत कि 'ग़ालिब' मर गया पर याद आता है
निकोहिश है सज़ा फ़रियादी-ए-बे-दाद-ए-दिलबर की
ग़म अगरचे जाँ-गुसिल है प कहाँ बचें कि दिल है
क्या वो नमरूद की ख़ुदाई थी
जिस ज़ख़्म की हो सकती हो तदबीर रफ़ू की
ये न थी हमारी क़िस्मत कि विसाल-ए-यार होता
बंदगी में भी वो आज़ादा ओ ख़ुद-बीं हैं कि हम
ज़ोफ़ से गिर्या मुबद्दल ब-दम-ए-सर्द हुआ