आज हम अपनी परेशानी-ए-ख़ातिर उन से
ये न थी हमारी क़िस्मत कि विसाल-ए-यार होता
ज़ोफ़ में तअना-ए-अग़्यार का शिकवा क्या है
ख़ुदा शरमाए हाथों को कि रखते हैं कशाकश में
मोहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का
तमाशा कि ऐ महव-ए-आईना-दारी
है किस क़दर हलाक-ए-फ़रेब-ए-वफ़ा-ए-गुल
क्या वो नमरूद की ख़ुदाई थी
सद जल्वा रू-ब-रू है जो मिज़्गाँ उठाइए
पुर हूँ मैं शिकवे से यूँ राग से जैसे बाजा
ब-नाला हासिल-ए-दिल-बस्तगी फ़राहम कर
सरापा रेहन-इश्क़-ओ-ना-गुज़ीर-उल्फ़त-हस्ती